गोस्वामी तुलसीदासजी भगवान् राम और जगज्जननी जानकीजीके तत्त्वतः ऐक्यका प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि मैं उन श्रीसीतारामजीके चरणोंकी वन्दना करता हूँ, जिन्हें दीन अत्यन्त प्यारे हैं तथा जो शब्द और अर्थ एवं जल और जलकी लहरके समान कहनेमात्रको तो भिन्न हैं, पर तत्त्वतः भिन्न नहीं हैं, वस्तुतः तुलसीदासजीकी भक्ति राममयी नहीं, सीताराममयी है; अतः उन्होंने स्थान – स्थान पर श्रीसीतारामजी की साथ-ही-साथ वन्दना की है, गोस्वामीजी का भक्ति-सिद्धान्त विशिष्टाद्वैतवाद था, उनके विचार में ब्रह्म और माया – दोनों सत्य तथा अनादि हैं। इसीलिये उन्होंने ब्रह्म के साथ उनकी शक्ति के रूपमें माया की भी वन्दना की है। गोस्वामीजी का जानकीजी के प्रति मातृभाव था। प्रकृति में यह सार्वभौमरूप से देखा जाता है कि माता करुणामयी होती है, अतः पुत्र अपनी बात माता के सम्मुख ही रखकर उनसे ही पितासे अनुमोदन हेतु कहता है । वैसे ही गोस्वामीजी भी माता जानकी से अपनी करुण – कथा निवेदितकर कहते हैं— हे माता ! कभी अवसर हो तो कुछ करुणा की बात छेड़कर श्रीरामचन्द्रजी को मेरी भी याद दिला देना, इसी से मेरा काम बन जायगा। आप उनसे यों कहना कि एक अत्यन्त दीन, सर्व साधनों से हीन, मनमलीन, दुर्बल और पूरा पापी मनुष्य आपकी दासी (तुलसी) – का दास कहलाकर और आपका नाम ले-लेकर पेट भरता है । इसपर प्रभु कृपा करके पूछें कि वह कौन है, तो मेरा नाम और मेरी दशा उन्हें बता देना । कृपालु रामचन्द्रजीके इतना सुन लेने से ही मेरी सारी बिगड़ी बात बन जायगी । हे जगज्जननी जानकीजी ! यदि इस दासकी आपने इस प्रकार वचनों से ही सहायता कर दी तो यह तुलसीदास आपके स्वामी की गुणावली गाकर भवसागरसे तर जायगा